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सामना करने की हमारी क्षमता - आत्मविश्वास और साहस का प्रतिबिंब

May 1, 2024

सामना करने की हमारी क्षमता – आत्मविश्वास और साहस का प्रतिबिंब

सामना करने की क्षमता से हमारे अंदर किसी भी समस्या के समाधान पर फोकस करने और हर हालत में उसका समाधान खोजने की क्षमता का विकास होता है, पर अगर किसी परिस्थिति के बारे में हम कुछ नहीं कर सकते हैं, तो हमें उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसे में हमें ना तो उसमें फंसना चाहिए, ना ही उसे बढ़ावा देना चाहिए, दूसरों को दोष भी नहीं देना चाहिए और न ही शिकायत करनी चाहिए। इस क्षमता से हमारे साहस और आत्मविश्वास का पता चलता है। इसमें क्रोध या गुस्से का अंशमात्र भी नहीं होता बल्कि दृढ़ता और अनुशासन का प्रयोग होता है। सभी का जीवन, कभी न कभी ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करता है जहां सहन करने और स्वीकार करने की क्षमता पर्याप्त नहीं होती है। ऐसे में, हमें आगे बढ़कर साहस के साथ उस परिस्थिती का सामना करना होता है, जो एकदम सही और लाभकारी है लेकिन उसके लिए साहस के साथ खड़ा होना; आध्यात्मिक सशक्तिकरण के साथ स्वाभाविक रूप से आ जाता है। हमें लोगों का और परिस्थितियों का भय नहीं लगता; हम एक कंपास की तरह अपने वैल्यूज को पकड़कर रखते हैं और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ते हैं। जब हम अपनी सामना करने की क्षमता का प्रयोग करते हैं तो इससे हमारे अंदर अपनी मृत्यु या परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु को लेकर गहराईयों में जो भय होता है वो समाप्त हो जाता है। यह हमें धन संपत्ति के नुकसान, किसी स्थिति या रिश्तों के टूटने का सामना करने में भी मदद करता है, साथ ही हम ये समझ पाते हैं कि, क्या शाश्वत यानि सत्य है और क्या अस्थाई माना असत्य।

 

यहां ये समझना बहुत आवश्यक है कि कब हमें सामना करने की क्षमता का उपयोग करना है और कब एडजस्ट करने की क्षमता का, आइए कुछ पॉइंट्स के द्वारा ब्रीफ में जानें:

 

1.जब संस्कारों में, राय या दृष्टिकोण में डिफरेंस हो तब हमें एडजस्ट करना है, न कि सामना करना है। लेकिन आजकल इसके विपरित, हम ऐसे डिफरेंसेज का सामना करने लगते हैं और अपने रिश्तों को कमज़ोर कर देते हैं।

 

2.जब हमें स्वयं के कमज़ोर या गलत संस्कार का पता चलता है, तो ऐसे में हमें अपने उस संस्कार का सामना करना होता है, न कि उसके साथ एडजस्ट करना होता है। हमें इसपर लगातार कार्य करने की जरूरत है और जब तक हम इसे बदले न दें या खत्म न कर दें तब तक हार नहीं माननी चाहिए। अगर हम हार मान लेते हैं, तो वह संस्कार मज़बूत हो जाता है और हमारी इच्छा शक्ति कमज़ोर हो जाती है। आइए थोड़ा रुककर खुद से पूछें- क्या मैं अपने असहज संस्कारों के साथ जी रहा हूँ और तालमेल बिठा रहा हूँ और लोगों के कमज़ोर संस्कारों के साथ तालमेल नहीं बिठा रहा हूँ?

 

3.इन सबके साथ, यदि वैल्यूज और सिद्धांतों का दुरुपयोग व शोषण हो रहा है, तो हमें सामना करना है न कि उनके साथ एडजस्ट। अगर हम सामाजिक दबाब में आकर इन्हें स्वीकार कर लेते हैं और एडजस्ट करते हैं, तो ये हमारे अंदर सामना करने की क्षमता के न होने को दर्शाता है। हमें इन सब प्रभावों से ऊपर उठकर, जो सही है वही करने की आवश्यकता है।

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